‘वन नेशन वन इलेक्शन’ से क्या है फायदा और नुकसान? बारीकी से समझिए हर पहलू…
‘वन नेशन वन इलेक्शन’ की चर्चा इन दिनों जोरों पर है। सरकार ने विधानसभा और लोकसभा चुनावों को एक साथ कराए जाने के प्रस्ताव का अध्ययन करने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक पैनल का गठन किया है।
कोविंद का पैनल लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की संभावनाओं और तंत्र का पता लगाएगा। हालांकि, यहां यह बताना जरूरी हो
जाता है कि भारत में 1976 तक लोकसभा और विधानसभा एक साथ होते रहे थे। सरकारी थिंक टैंक नीति आयोग इस सिलसिले में पहले ही अपनी सिफारिश कर चुका है।
प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष और 2015 से 2019 तक नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबरॉय द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि एक भी साल ऐसा नहीं गया है जब किसी राज्य विधानसभा या लोकसभा के लिए चुनाव न हुआ हो। रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि यही स्थिति आगे भी बनी रहने की भी संभावना है। इस स्थिति के कारण बड़े पैमाने पर धन का खर्च के साथ-साथ सुरक्षा बलों और जनशक्ति आदि की लंबे समय तक तैनाती होती है। ऐसे में ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ जरूरी हो जाता है, क्योंकि एक साथ चुनाव कराने से सरकारी धन के साथ-साथ सुरक्षा व्यवस्था अन्य जरूरी कामों में अपना ध्यान लगा सकती है।
बिबेक देबरॉय ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया है कि अलग-अलग वक्त पर चुनाव कराने से शासन के स्तर पर क्या-क्या परेशानियां आ सकती हैं। रिपोर्ट में उन्होंने कि शासन के बड़े क्षेत्र में प्रतिकूल प्रभाव मूर्त और अमूर्त दोनों है। देबरॉय ने कहा, “स्पष्ट रूप से बार-बार आदर्श आचार संहिता लगाए जाने से विकासात्मक परियोजनाएं और अन्य सरकारी गतिविधियां निलंबित हो जाती हैं… बार-बार चुनावों का बड़ा अमूर्त प्रभाव यह होता है कि सरकार और राजनीतिक दल लगातार प्रचार मोड में रहते हैं।”
बार-बार हो रहे चुनाव से क्या नुकसान
बार-बार चुनाव होने से चुनावी मजबूरियां नीति निर्धारण के फोकस को बदल देती हैं। इस दौरान लोकलुभावन वादे और राजनीतिक रूप से सुरक्षित उपायों उच्च प्राथमिकता दी जाती है, जो लंबे वक्त के लिए शानस व्यवस्था के लिए ठीक नहीं होते हैं। इससे विकासात्मक उपायों के डिजाइन और योजनाओं के डिस्ट्रीब्यूशन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय जनसांख्यिकी और युवा आबादी की लगातार बढ़ती अपेक्षाओं को देखते हुए, शासन में आने वाली बाधाओं को शीघ्रता से दूर करना जरूरी है।
रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि लगातार होने वाले चुनाव के चलते सरकार या सियासी पार्टियां हमेशा चुनावी मोड में रहती है। चुनाव को ध्यान में रखते हुए लोकलुभावन वादे किए जाते हैं, जिससे जरूरी योजनाओं का क्रियान्वयन ठप्प पड़ जाता है। लक्षित लोगों को ध्यान में रखते हुए किए वादे की होड़ में जरूरी सेवाएं लोगों तक नहीं पहुंच पातीं।
भारत के विधि आयोग ने चुनावी कानूनों में सुधार पर अपनी 170वीं रिपोर्ट में इस विचार का समर्थन किया है कि हमें उस स्थिति में वापस जाना चाहिए जहां लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते हैं। विधि आयोग ने सुझाव दिया कि जिन विधानसभाओं का कार्यकाल लोकसभा चुनाव के छह महीने बाद समाप्त हो रहा है, उनके चुनाव एक साथ कराए जा सकते हैं। ऐसे चुनावों के नतीजे विधानसभा कार्यकाल के अंत में घोषित किए जा सकते हैं।
बार बार लागू होती है आदर्श आचार संहिता
एक साथ चुनाव कराने से हर साल अलग-अलग चुनाव कराने पर होने वाला भारी खर्च भी कम हो जाएगा। चुनाव आयोग ने लोकसभा और राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की विधानसभाओं के चुनाव कराने की लागत 4500 करोड़ रुपये आंका है। चुनावों के कारण आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है और संपूर्ण विकास कार्यक्रम और गतिविधियां रुक जाती हैं। बार-बार चुनाव होने से आचार संहिता को लंबे समय तक लागू किया जाता है, जो सामान्य शासन को प्रभावित करती है। बार-बार चुनाव होने से सामान्य सार्वजनिक जीवन बाधित होता है और आवश्यक सेवाओं के कामकाज पर असर पड़ता है। यदि एक साथ चुनाव होते हैं तो चुनावों की अवधि कुछ खास दिनों तक ही सीमित होगी।
वन नेशन वन इलेक्शन के लिए चुनौतियां
वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर होने वाली कठिनाइयों से गुरेज नहीं किया जा सकता। चुनाव आयोग को लगता है कि एक साथ चुनाव कराने के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) और वोटर वेरिफिएबल पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीएटी) मशीनों की बड़े पैमाने पर खरीद की आवश्यकता होगी। चुनाव आयोग का अनुमान है कि ईवीएम और वीवीपैट की खरीद के लिए 9284.15 करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी। मशीनों को हर 15 साल में बदलने की भी आवश्यकता होगी जिस पर फिर से व्यय करना होगा। इसके अलावा, इन मशीनों के भंडारण से भंडारण लागत में वृद्धि होगी।