जिस दिन आत्मा कर्मो से अलग हो जाएगी उस दिन मोक्ष को प्राप्त कर लेगी-विशुद्ध सागर जी म.सा.
परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने अपने आज के प्रवचन में फरमाया कि मैं आत्मा हूँ मुझे कभी लोभी कभी कामी तो कभी वैरागी की उपमा दी गई। और यह सब मेरे अपने कर्मो के आधार पर होता है। इन सबके बाद भी आत्मा का कर्म से कोई संबंध नहीं होता। जिस दिन ये आत्मा कर्मो से अलग हो जाएगी उस दिन मोक्ष को प्राप्त कर लेगी। हम कभी भी जैसे ही आत्मा को याद करे हमे हमारी आत्मा याद आनी चाहिए। संसार में तीन प्रकार के लोग होते है भाग्यशाली, सौभाग्यशाली और दुर्भागी
भाग्यशाली जिसे वस्तु, व्यक्ति और परिस्थिति अपनी अनुकूलता से मिले अर्थात अपने अनुकूल मिले उसे भाग्यशाली कहते है।
सौभाग्यशाली जिस मनुष्य की यह इच्छा होती है कि उसे जो वस्तु, व्यक्ति और परिस्थिति प्राप्त हुई है उसका अपनी आत्मा के विकास में उपयोग करे या उसका उचित उपयोग करे, वह सौभाग्यशाली होता है। और जो प्राप्त वस्तु, व्यक्ति और परिस्थिति का अनुचित उपयोग करता है वह दुर्भागी होता है।जो उपकारी के निकट या निश्रा में रहते है वो बड़े भाग्यवान होते है। हमारे दिल में परमात्मा रहे ये सामान्य बात है लेकिन हम परमात्मा के दिल में रहे ये महत्वपूर्ण बात हो जाती है। दो लोग जब एकसाथ रहे । और उस परिस्थिति में एक बोले और दूसरा समझ जाए तो कहते है दोनो का मन मिलता है। ऐसे ही परमात्मा और भक्त का तथा गुरु और शिष्य का मन मिलना चाहिए। वो समझ किसी काम की नहीं रह जाती जो समय निकलने के बाद आती है। क्योंकि समझ के लिए समय तत्व महत्वपूर्ण होता है।हमे विचार करना है कि मैं भाग्यशाली हू , सौभाग्यशाली हूं या दुर्भागी हू। हे परमात्मा मुझे पकड़ लो क्योंकि आपने अपने मोह रूपी शत्रु को परास्त कर दिया है और मैं मोह के कारण शत्रु बनाते जा रहा हू। हम स्वयं अपने कषाय और विकारों के करम अपनी आत्मा के शत्रु बने हुए है। परमात्मा का शासन हमे अपने अष्ट कर्म रूपी शत्रुओं पर विजय पाने के लिए मिला है। ये सुअवसर है जिसमें हम कर्मो का क्षय करके सिद्धशिला तक जा सकते है। हम आज किए जाने वाले कार्य को कल पर ताल देते है लेकिन कल कब काल बन कर आ जाए इसका पता नहीं। इसलिए हमेशा पुण्य के कार्यों को कल पर नहीं टालना चाहिए। और पाप के कार्य को आज नहीं करना चाहिए। अपने कर्तव्य के प्रति सदा सजग रहना चाहिए। गिरगिट निमित्त मिलने पर समय समय पर अपना रंग बदलता है। लेकिन इंसान हमेशा अपना रंग बदलते रहता है। जबकि एक परमात्मा ही ऐसे है जो कभी नहीं बदलते।
श्रावक के छह सामान्य कर्तव्य में दूसरा कर्तव्य है गुरु की उपासना। उपासना दो शब्दों से बना है। उप अर्थात निकट और आसन अर्थात बैठने का स्थान। अर्थात जो गुरु के निकट रहे वही गुरु की भक्ति कर सकता है। गुरु की भक्ति दो प्रकार से होती है।इच्छित जो गुरु चाहे वही करना।इंगित गुरु के इशारे को समझना।हम जब किसी के निकट होते है तब उसके गुणों को देखना कठिन होता है और दोषों को देखना सरल होता है। हम दूसरो से स्वयं के प्रति सम्मान तो चाहते है लेकिन दूसरो को सम्मान देना नहीं चाहते।
साधक अर्थात गुरु की निश्रा प्राप्त करके प्राप्त साधनों का उपयोग करते हुए साध्य अर्थात परमात्मा बना जा सकता है। जिस दिन गुरु का आचरण हमे मिल जाए उस दिन स्वयं को धन्य समझने का दिन होगा।