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स्वार्थ गंदी नाली के समान है और मैत्री भाव गंगा के पवित्र पावन जल के समान – विशुद्ध सागर जी म.सा.

धमतरी। परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने अपने आज के प्रवचन में फरमाया कि हम प्रतिदिन आत्मा के निकट जाने का प्रयास कर रहे है। लेकिन संसार के कार्यों में जाते ही आत्मा से दूर हो जाते है। अपनी कमी को छिपाने के लिए दूसरो में कमी ढूंढने का प्रयास करते है। हम अपने दुख से ज्यादा दूसरो के सुख को देखकर दुखी होते है। अच्छे कहलाने वाले अच्छा दिखने का प्रयास करते है पर विचार करना है की क्या हम वास्तव में अच्छे है। हमे अच्छा दिखने की अपेक्षा अच्छा बनने का प्रयास करना है। सामने वाले से अपेक्षा रखना मैत्री भाव टूटने का सबसे बड़ा कारण होता है। दूसरो से अपेक्षा की पूर्ति न होने पर यही दुख का कारण बन जाता है। अधिकांशत: हमारे चेहरे की हंसी अपने गम को छुपाने के लिए होती है। दूसरो की निंदा सुनते सुनते हम भी निंदक बन जाते है। और हम भी दूसरो की निंदा करने लग जाते है। मैत्री हमेशा भय रहित होना चाहिए। अर्थात अगर मित्र सच्चा हितैषी हो तो हमारे मन में कभी भय नहीं होता। मैत्री अच्छा हो तो हमारा व्यवहार स्नेहिल हो जाता है। मित्र के प्रति स्नेह का भाव हमे मित्र के और करीब ले आता है। मित्रता में आत्मीयता की अमीवृष्टि होती है। हमारी आत्मीयता हमारे मित्र को कभी दूर जाने नही देता। मैत्री हमारे मन में स्वीकार भाव को बढ़ाता है। हमारी मित्रता खराब न हो इसलिए मन में स्वीकार करने की भावना आ जाती है। मैत्री के कारण हृदय में सहजता का भाव आता है। और सहजता का भाव एक दूसरे को समझने में सहायता करता है। मैत्री भाव में पूरे संसार को एक नजर से देखते है। अर्थात सभी के प्रति एक समान व्यवहार करता है। मैत्री भाव हमे नि:स्वार्थ बनाता है। क्योंकि स्वार्थ के साथ सच्ची मित्रता नही हो सकती। स्वार्थ भाव के कारण दूसरो का भला चाहने वाला भी बुरा बन जाता है। स्वार्थ गंदी नाली के समान है और मैत्री भाव गंगा के पवित्र पावन जल के समान है जिससे हम स्वार्थ के मैल को साफ कर सकते है। वास्तव में सच्ची मित्रता वो है जो हमे पापों से दूर ले जाए, दुख को दूर करने वाला ही सच्चा मित्र होता है।


जीवन जीने की एक कला है कुछ सह लो कुछ कह लो
परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने कहा कि जो भाग्य में लिखा है उतना ही मिलेगा। इसलिए हमेशा सभी से प्रेम भाव के साथ रहना चाहिए। अपने अपराधो और पापों की निंदा करते हुए हमे भी प्रायश्चित करना चाहिए। परमात्मा की शरण में आकर संसार के सभी जीव भय रहित हो जाते है। क्योंकि परमात्मा तो करुणा के भंडार है। परमात्मा के हृदय में सभी जीवों के प्रति ममत्व का भाव होता है। दुख देने वाले को भी परमात्मा सुखी करने का प्रयास करते है। हम जड़ पदार्थो के प्रति मैत्री भाव रखते है जबकि हमे जीव के प्रति मैत्री भाव रखना चाहिए। जीव के प्रति हमारा मैत्री भाव हमारा आने वाला भव सुधार देता है और जड़ पदार्थो के प्रति मैत्री भाव हमारा आने वाला भव बिगाडऩे का काम करता है।

 

Ashish Kumar Jain

Editor In Chief Sankalp Bharat News

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