जैन दर्शन व्यक्ति नही व्यक्तित्व को नमन करता है – विशुद्ध सागर जी म.सा.
धमतरी। परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने अपने आज के प्रवचन में फरमाया कि आराधना से पुण्य का बंध होता है जबकि आशातना पाप के बंध का कारण बनता है। हमे कभी भी देव, गुरु और धर्म की आशाताना नही करना चाहिए। हम जब अज्ञानता वश देव, गुरु और धर्म की आलोचना करते है निंदा करते है, तर्क वितर्क को छोड़कर कुतर्क करने लग जाते है। तब इसकी आशातना होती है। और यह आशातना हमारा भव और भाव दोनो बिगाड़ देता है। जबकि इनकी आराधना करने से भाव और भव दोनो सुधर जाते है। स्वयं परमात्मा के द्वारा संघ की स्थापना की जाती है। इसलिए संघ का स्थान महत्वपूर्ण होता है। परमात्मा की दृष्टि से परिपूर्ण विचारो को पालने में अपना तन, मन और धन लगाने वाले ही परमात्मा के संघ का हिस्सा बनते है। जिनशासन रूपी संघ आत्मोत्थान का साधन है। कोई भी संघ अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए बनाया जाता है। जबकि जिनशासन रूपी संघ नि:स्वार्थ भाव से आत्मा के विकास के लिए होता है। हमारी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के कारण हम स्वार्थी बने हुए है। इसीलिए आत्मा का विकास अवरूद्ध हो गया है। जबकि परमात्मा कहते है हमे स्वार्थ रहित कार्य करना चाहिए। जिनमे पंच परमेष्ठि के गुण हो वो सभी नमन योग्य है। ज्ञानी भगवंत कहते है हमे विचार करना चाहिए की हम आने के लिए आते है या जाने के लिए आते है। जैन दर्शन व्यक्ति नही व्यक्तित्व को नमन करता है। व्यक्तित्व को महत्वपूर्ण मानता है। हमारा जिनशासन बहुरत्न वसुंधरा है। परमात्मा के विचारो को आगे बढ़ाने के लिए संघ की व्यवस्था की गई है। और एक जैसे विचार वाले जब एक संघ से जुड़ते है तो शीघ्र विकास संभव है। ज्ञानी कहते हैं अगर किसी संघ में कोई सुधार करने की दृष्टि से कुछ कहे तो उसे ध्यान पूर्वक सुनना चाहिए। लेकिन जब आलोचना की दृष्टि से कुछ कहे तो उसे सुनकर अनसुना कर देना चाहिए लेकिन प्रत्युत्तर नही देना चाहिए। क्योंकि हमारा सही प्रत्युत्तर भी अशांति का कारण बन सकता है। जिनशासन भाव प्रधान है। इसीलिए परमात्मा से पहले उनके आदर्शों को याद किया जाता है। किसी भी संघ में कोई भी अच्छा काम करता है तो उसकी अनुमोदना करनी चाहिए। यह अनुमोदना भी पुण्य बंध का कारण बनता है। पर्दे के पीछे कार्य करने वाला कभी सम्मान नही चाहता लेकिन उनके कार्य की सराहना करके हम पुण्य के भागीदार बन सकते है।