संसार के सभी रिश्ते नाशवान व क्षणिक है हमे परमात्मा से शाश्वत संबंध बनाने का प्रयास करना चाहिए – श्री विशुद्ध सागर जी महाराज साहेब
धमतरी। युवा संत परम पूज्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज साहेब ने आज के प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि मैं अर्थात मेरी आत्मा स्वतंत्र है इसका निश्चय करने वाला निष्काम और आत्मज्ञानी बन सकता है। मैं वो हूं जो भगवान है। मैं जो हूं वही भगवान है। किंतु भगवान और मुझमें बस यही अंतर है कि उन्होने अपनी आत्मा से अपने कर्मों के जाले को साफ कर लिया है और मैं कर्मों के जाले को अभी तक साफ नही कर पाया हूं। मेरा स्वरूप सिद्ध के समान अर्थात भव्यात्मा के समान है। मेरा वास्तविक स्वरूप अजर अमर और शाश्वत है। हे परमात्मा आप अपने निज स्वरूप को जान गए इसलिए आपने सुख के भंडार के प्राप्त कर लिया। लेकिन मैं संसार के राग में फंसकर आज तक अपने वास्तविक अर्थात निज स्वरूप को जान नही पाया हूं। इसलिए संसार के दुखों से दुखी हो रहा हूं। अब आपको देखकर मुझे भी अपने निज स्वरूप को जानने का प्रयास करना है। मेरा निज स्वरूप सहजानंदी है लेकिन फिर भी मैं संसार में सुख और आनंद को ढूंढने का प्रयास कर रहा हूं। यही मेरी अज्ञानता है। अब मुझे इस अज्ञानता से बाहर निकलना है और आत्मा के प्रकाश को देखने, जानने और समझने का प्रयास करना है। सत्य को जानने के बाद उसे अच्छे से जांच लेना चाहिए। क्योंकि जो मन को स्वीकार हो जाए उसे मानने में कोई कठिनाई नहीं होती। ज्ञानी कहते है इस संसार में अकेले आए थे और अकेले ही जाना है। हम इस संसार में जो भी संबंध बनाते है वो सब हमारे जन्म के बाद बनते है और मृत्यु के साथ टूट जाते है। अर्थात संसार में बनाए जाने वाले सभी संबंध नाशवान या क्षणिक होते है। अब हमे परमात्मा से शाश्वत संबंध बनाने का प्रयास करना है। इन्ही संबंधों के बीच हम सुख और दुख का अनुभव करते है। अनुकूल परिस्थिति सुख का और प्रतिकूल परिस्थिति दुख का कारण बन जाता है। भगवान कहते हैं जो एक को जान लेता है वो सबको जान लेता है और जो एक को नही जानता वो कुछ भी नही जानता। एक बार जो अपनी प्रभुता को जान लेगा वो कभी भी संसार में सुख खोजने का प्रयास नही करेगा। इस संसार में हमारी गलती देखने और उसे दूर करने का अधिकार केवल गुरु को होता है। किंतु हम संसार में सबकी गलती देखते है और बताते है विचार करना है क्या हमे ऐसा अधिकार है? अगर देखना ही है तो स्वयं की गलती को देखना चाहिए। सत्कर्म करने वाले की इंसान की आत्मा कभी दीन नही होती। प्रभुता से आत्मा की संपन्नता प्राप्त होती है। हमे केवल प्रयास पूर्वक अच्छा पुरुषार्थ करना है परिणाम की चिंता छोड़ देना चाहिए। क्योंकि प्रयास हमारे हाथ में है परिणाम नही।