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जीवन का अंतिम क्षण आने से पहले इस मानव जीवन को सार्थक बनाए – श्री विशुद्ध सागर जी म.सा.

धमतरी। उपाध्याय प्रवर अध्यात्म योगी परम पूज्य महेंद्र सागर जी म.सा. युवा मनीषी परम पूज्य मनीष सागर जी म.सा. के शिष्य रत्न युवा संत परम पूज्य श्री विशुद्ध सागर जी म.सा. ने आज के प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि सम्यक ज्ञानी, सम्यक दर्शी और जो सम्यक चारित्रवान है उन्हें निर्वाण अर्थात मोक्ष जरूर मिलता है। ज्ञानी भगवंतो ने जड़ और चेतन का, पाप और पुण्य का, संसारिक और मुक्त का तथा आश्रव और संवर का भेद बताया। देव अरिहंत परमात्मा जैसे होना चाहिए। गुरु निग्र्रंथ हो और दया जैसा धर्म हो। ये सब जिस प्राणी के जीवन में हो निश्चित ही वो प्राणी निर्वाण को प्राप्त करने के योग्य होता है। पंच महाव्रत को स्वीकार करने वाला अथवा कम से कम व्रतों को धारण करने वाला निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। अब हमे ऐसी भावना को स्वीकार करना है जिससे ये मानव जन्म सुधर सके। इस जीवन में हम निर्वाण के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सके। सभी शास्त्रों के माध्यम से परमात्मा ने यही समझाया है कि जीवन का एकमात्र लक्ष्य है आत्मा को मोक्ष तक पहुंचाना। क्योंकि यह शरीर तो नाशवान है और आत्मा अजर अमर है। आत्मा ही शाश्वत सत्य है। इसलिए आत्मा के भव भ्रमण को खत्म करने का प्रयास करना है। साधक को अपने जीवन में एक ही भय होता है कि उसे जो यह अत्यंत दुर्लभ मानव जन्म मिला है वह व्यर्थ न हो जाए। इसलिए जीवन का अंतिम क्षण आने से पहले इस मानव जीवन को सार्थक बनाना है। ज्ञानी कहते हैं जो सच्चा ज्ञानवान होता है निश्चित ही वह विनयवान भी होता है। इसका श्रेष्ठ उदाहरण है आचार्य हरिभद्र सूरी। आचार्य श्री ज्ञान के भंडार थे लेकिन उन्होंने यह भी सोच रखा था जिस दिन मैं किसी गाथा का अर्थात किसी दोहे का अर्थ न समझ पाऊं उस दिन मैं उनका शिष्य बन जाऊंगा। ऐसे आचार्य श्री का जिनशासन पर बहुत उपकार है। आपके द्वारा प्रायश्चित स्वरूप 1444 ग्रंथो की रचना की गई थी। ज्ञानी कहते हैं हमारा इस संसार के नाशवान वस्तुओं के प्रति हर पल राग बढ़ते ही जाता है। राग के कारण ही द्वेष आता है । और यही संसार में भवभ्रमण का कारण है। हमारा जीवन कभी राग की आग में जलता है तो कभी द्वेष के कीचड़ में फंस जाता है। लेकिन सम्यकदर्शी इन दोनों से दूर रहते है। हम अपने जीवन में हरपल शुभाशुभ कर्म का बंध करते रहते है। यही आश्रव कहलाता है। और आत्मा में जब तक कर्म जुड़ा हुआ हो तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए जीवन में आश्रव को रोकने का प्रयास करना है और संवर को स्थान देना है। ज्ञानी कहते हैं हमे सम्यक्तव में दृढ़ रहना है। संयम में स्थित रहना है। सत्य और शाश्वत को स्वीकार करना है। साधना में मन लगाना है। तभी संसार के भ्रमण को खत्म किया जा सकता है। संवर भावना के माध्यम से ही हम आत्मा में आने वाले कर्मों को रोक सकते है। फिर आत्मा में पूर्व में लगे कर्मों को भोगकर आत्मा को कर्ममुक्त किया जा सकता है। आठ कर्मों में से सात कर्म हमारी आत्मा पर लगातार आघात करते रहते है। किंतु आयुष्य नाम कर्म का बंध जीवन में एक बार ही होता है। हमे सरलता, सद्गुण, संतोष, समता और शांति को प्राप्त करने का प्रयास करना है। सद्बुद्धि प्राप्त करके सम्यक ज्ञान , दर्शन और चारित्र की सहायता से आत्मा को सिद्ध बुद्ध और मुक्त करने का प्रयास करना है। विचार करना है अगर हम अपने लिए ही अच्छा नही सोच सकते तो कोई दूसरा हमारे लिए अच्छा सोचे इसकी कल्पना भी बेकार है। जीवन में सद्गुण न हो तो मन स्वाध्याय में मन नहीं लगता । और स्वाध्याय न होने पर साधना में मन नहीं लगता।

Ashish Kumar Jain

Editor In Chief Sankalp Bharat News

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