जीवों के प्रति क्षमा का भाव आ जाये तो कल्याण निश्चित है – विशुद्ध सागर जी म.सा.
धमतरी । परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने अपने आज के प्रवचन में फरमाया कि परमात्मा के माध्यम से स्वयं को देखने का प्रयास करते हुए विचार है की परमात्मा तो करुणा सिंधु है इनकी करुणा का कोई पार नही है। हे परमात्मा आपकी उसी करुणा का एक बूंद भी मुझे मिल जाए तो मैं भव पार हो सकता हू। परमात्मा द्रव्य करुणा दूसरो पर और भाव करुणा स्वयं पर करते है। परमात्मा दीन-दुखियो के तारणहार है। आपने चंडकौशिक, संगमदेव और न जाने कितने पापियों को तार दिया। किंतु न जाने मुझसे ऐसा क्या अपराध हुआ है जो मैं अभी तक इस संसार में भटक रहा हू। परमात्मा तो क्षमाशील है। जिस दिन मेरे हृदय में सभी जीवों के प्रति क्षमा का भाव आ जायेगा उस दिन मेरा भी कल्याण निश्चित है। इस संसार रूपी सागर में परमात्मा ही नाविक बनकर हमे भव से पार लगा सकते हैं। हमे जीवन को उपवन की तरह सजाने का प्रयास करना है। उपवन वो अच्छा लगता है जिसमे हर मौसम के फूल खिलते हो। हमे जीवन रूपी उपवन को भी तप, आराधना, साधना, मैत्री भाव, करुणा भाव, प्रमोद भाव रूपी पुष्पों से सजाना है। मोक्ष की अभिलाषा रखने वाला या मोक्ष को प्राप्त करने की योग्यता रखने वाला भव्यात्मा होता है। जैन दर्शन के अनुसार आचार्य स्थूलीभद्र जी को काम विजेता के रूप में आने वाली 84 चौबीसी तक इतिहास में याद किया जाएगा। इसीलिए हमे भी अपने भाव हमेशा अच्छे रखने चाहिए। पता नही कब हमारे भाव के कारण हमारा कर्मबंध ऐसा हो जाए और उसे भोगे बिना हम छूट ही न पाए। जिंदगी की रेस में संसार रूपी मैदान में हमे उस खिलाड़ी के जैसे दौडऩा है जो गोल करने के लिए दौड़ता है, उस रेफरी के जैसे नही जो दूसरो की गलती देखने के लिए दौड़ता है। इस संसार के क्षणिक मोह में फंसकर हम आत्मा के शाश्वत सुख को भूल जाते है। हम संसार के मोह में फंसकर अपना हित देखने वाले मोहित रोज बन जाते है।
अब संसार के मोह से दूर होते हुए अपनी आत्मा के हित की चिंता करते हुए रोहित बनने का प्रयास करना है। ये पूरा संसार हमे मोहित बनाना चाहता है लेकिन परमात्मा और गुरु ही ऐसे है जो हमे मोहित से रोहित बना सकते है। भूतकाल में हम जो गलती कर चुके है। वर्तमान में उससे अनुभव लेकर, सीखकर अपने भविष्य को सुधारना है। अगर हम अपने अंतर्मन में रहे हुए विषय, कषायों रूपी समस्या को परमात्मा के या गुरु के सामने रख दे तो निश्चित ही उसका समाधान मिल सकता है। हमे अपने जीवन में एक परमात्मा और एक गुरु जरूर बनाना चाहिए। और उनके प्रति पूर्ण समर्पण का भाव होना चाहिए। जब परमात्मा, गुरु और स्वयं में हम भेद नहीं करेंगे तो एक दिन ऐसा भी आयेगा जब तीनों की आत्मा भी एक जैसी हो जायेगी। ज्ञानी भगवंत कहते है दूसरो को कुछ भी देने का मन न हो वो कठोरता कहलाता है। दूसरो को देने का मन हो लेकिन दे ना सके वो कृपण होता है। जो देने के लिए हमेशा तैयार रहे और दे दे वो उदार कहलाता है। जो कुछ दिए बिना न रह पाए वो कोमल कहलाता है। आत्मा की दुकान का पर्युषण पर्व रूपी सीजन आने वाला है। इस सीजन का लाभ उठाने के लिए हमे पहले से तैयार हो जाना है। इस सीजन में हमे अपने संस्कारों और गुणों में वृद्धि करके आत्मा के विकास का लाभ कमाना है। अपने जीवन में करुणा भाव को इतना बढ़ाना है जिसके कारण संसार के सभी जीवों के प्रति हमारे मन में दया का भाव आ सके। हम संसार में स्वयं को सुखी करने के लिए दूसरो को बार बार दुखी करने से भी परहेज नहीं करते। इस दशा में हमारी सज्जनता समाप्त हो जाती है। ऐसी दशा में भी हम दूसरो से सज्जनता की अपेक्षा करते रहते है। अब प्रयास करना है स्वयं के सुख के लिए हम कभी दूसरो को दुखी नहीं करेंगे।