अज्ञानता ही अशांति का कारण है – विशुद्ध सागर जी म.सा.
इतवारी बाजार स्थित पाश्र्वनाथ जिनालय में चातुर्मास के तहत प्रवचन है जारी
धमतरी। इतवारी बाजार स्थित पाश्र्वनाथ जिनालय में चातुर्मास के तहत प्रवचन जारी है। परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने अपने आज के प्रवचन में फरमाया कि ज्ञानी कहते है की जो शाश्वत शरण है जो सबके तारण तरण है ऐसे परमात्मा की शरण लेनी चाहिए। ज्ञान से ज्ञान का मिलन हो जाए, तो जीवन में शांति आ सकती है। क्योंकि अशांति का कारण ही अज्ञानता है। जीवन से अशांति दूर होते ही संसार के सारे भ्रम अपने आप दूर हो जाएंगे। सभी गतियों में ये मनुष्य गति ही श्रेष्ठ है। हमे इस गति के रूप में अमूल्य अवसर मिला है। इस अवसर का लाभ उठाकर हमे अपने पुरुषार्थ के बल पर सिद्धि अर्थात मोक्ष को प्राप्त करने का प्रयास करना है। आज तक जिसने भी सिद्धि प्राप्त किया है उन सभी ने आपका आश्रय पाकर ही सफलता प्राप्त किया है। हमे भी सिद्धि प्राप्त करने के लिए आपके शरण की आवश्यकता है। जिसने भी जीवन में सुदेव, सुगूरू और सुधर्म की सहायता प्राप्त कर ली उनके जीवन से अज्ञानता रूपी अंधकार समाप्त हो जाता है। साथ ही भविष्य में शाश्वत सुख को प्राप्त करने की योग्यता भी मिल जाती है। अपनी आंखों से सर्वश्रेष्ठ देखने का प्रयास करोगे तो स्वयं की आत्मा को देख पाओगे। क्योंकि आत्मा ही श्रेष्ठ था, श्रेष्ठ है और श्रेष्ठ रहेगा। आत्मा ही शाश्वत है, सत्य है, नित्य और निरंतर है। यह आत्मा ही हमारे जीवन को श्रेष्ठ बना सकती है। इसलिए हमे शरीर की अपेक्षा आत्मा के विकास का पुरुषार्थ करना है। हमे सदा ही परमात्मा से प्रार्थना करना चाहिए कि हे परमात्मा हमे इतनी शक्ति जरूर देना जीवन में चाहे कैसी भी परिस्थिति आ जाए आपके प्राप्ति हमारा विश्वास कभी कम न हो पाए। हम सदा आपके बताए नेक राह पर चलते हुए अपने आत्मकल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ते रहे। परमात्मा की भक्ति करते करते हमे भी भगवान बनने का प्रयास करना है। हमने संवत्सरी पर्व मना लिया सभी से क्षमा याचना भी कर ली किंतु अब विचार करना है की क्या अपने आप से क्षमायाचना की। क्योंकि हम अपने जीवन में शरीर की चिंता करते करते अपने आत्मा की चिंता करना भूल गए। इसलिए अब आवश्यक है की हम स्वयं की आत्मा से क्षमायाचना करते हुए अपने आत्मा की दशा और दिशा को बदलने का प्रयास करे। ज्ञानी कहते है की जब काल का समय आता है तो बड़े से बड़ा शक्तिशाली भी उसके सामने नतमस्तक हो जाता है। क्योंकि काल के आगे किसी का बस नही चलता। काल किसी को एक पल का भी समय नहीं देता। इसलिए जीवन के हरक्षण को अंतिम क्षण मानकर पुण्य कार्य करना चाहिए। इस संसार में हम जिस जिस वस्तु की चाह करते है वो सब शरीर के लिए होता है जबकि आत्मा संसार की कोई वस्तु की मांग कभी नही करता। लेकिन फिर भी हम आत्मा के प्रति उदासीन बने हुए है यही हमारी अज्ञानता है। जीवन में कर्मो का आना-जाना आश्रव कहलाता है। जबकि ज्ञानी कहते है आत्मा को कर्मो से मुक्त करने का पुरुषार्थ होना चाहिए। हम जीवन में कल्पना और केवल कल्पना में जीते है। और जो कल्पना हम पूरा नहीं कर पाते वो दुख का कारण बन जाता है। परमात्मा कहते है भूतकाल सपना है। वर्तमान काल अपना है और भविष्यकाल कल्पना है। इसलिए हमे हमेशा वर्तमान में जीना चाहिए।