ईष्र्या, अभिमान, द्वेष और बैर भाव हमे दिन-प्रतिदिन परमात्मा से दूर कर रहा है – विशुद्ध सागर जी म.सा.
धमतरी। परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने अपने आज के प्रवचन में फरमाया कि कल जो हमने देखा था वो आज नही है। और जो आज देख रहे है वो आने वाले कल में नहीं दिखेगा। अर्थात संसार परिवर्तनशील है। अपेक्षित परिणाम पाने के लिए प्रयास भी अपेक्षित होना चाहिए। हमारे मन को विकास के कार्यों में रस कम आता है और पतन के मार्ग में रस ज्यादा आता है। हमारी आत्मा इसी कारण आजतक संसार में भटक रही है। जिस दिन हम तन और मन से अपेक्षित परिणाम के लिए प्रयास करने लग जायेंगे आत्मा भी अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर लेगी। हम एक से अधिक मित्रो के साथ अलग अलग व्यवहार करते है जबकि परमात्मा कहते है पूरी वसुधा अर्थात धरती के जीवों के प्रति मैत्री का भाव रखना चाहिए। जब हम तपस्या करते है तो गृहस्थ धर्म को प्रभावित किए बिना जो भोजन का समय बचता है उस समय में परमात्मा को स्मरण करना चाहिए। लेकिन हम उस समय का उपयोग प्रमाद अर्थात आलस्य करने में लगा देते है। अगर हम जड़ नही जीव है तो हमे आत्मा के विकास के लिए विचार करना चाहिए क्योंकि जड़ पदार्थ विचार नहीं कर सकता। हमारे मन से पकड़ की अकड़ नही जा रही है इसलिए ये हमे संसार के मायाजाल में जकडऩे का काम करती है। जिस दिन ये पकड़ की अकड़ छूट जायेगी उस दिन संसार भ्रमण से हमारी आत्मा को भी मुक्ति मिल जाएगी।
मैत्री भाव को तोडऩे का पहला कारण है ईष्र्या अर्थात जलन। अपने नकारात्मक भावों की अभिवृद्धि ही ईष्र्या है। ईष्र्या के कारण हमारे मन में दूसरो के प्रति अहोभाव नही आता। कभी भी ईष्र्या अकेले नहीं आता। ये अपने साथ अभिमान द्वेष और बैर भी लेकर आता है। अभिमान अर्थात अहंकार। ईष्र्या हमारे अहंकार को पुष्ट करता है। द्वेष हमारा पीछा नहीं छोड़ता । द्वेष के कारण हम दूसरो से दूर होते जा रहे है। कालांतर में यही द्वेष दूसरो के प्रति बैर का कारण बनता है। बैर के कारण आने वाला भव भी खराब हो जाता है। और यही सब हमारे दुख का कारण है। अभिमान, द्वेष और बैर हमारे मन में बदले की भावना को जन्म दे देता है। बदले की भावना हमारा भव और भाव बिगाडऩे का काम करती है। बदले की भावना दूसरो के लिए हानिकारक हो या न हो किंतु स्वयं के लिए हानिकारक जरूर होता है। ईष्र्या, अभिमान, द्वेष और बैर भाव हमे दिन-प्रतिदिन परमात्मा से दूर कर रहा है। बिना मैत्री भाव के आत्मा का विकास संभव ही नहीं है।
मित्रता का वास्तविक अर्थ होता है दूसरो के हित की चिंता करना
परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने कहा कि परमात्मा को हमेशा निश्छल भाव से निहारना चाहिए। क्योंकि इससे हमारा हृदय पावन और पवित्र बनती है। क्योंकि परमात्मा तो करुणा के भंडार है। हमे प्रयास करना है की परमात्मा की तरह हमारे हृदय में सभी जीवों के प्रति करुणा का भाव आ सके। प्रेम के संबंधों में तुलना करने का भाव आ जाना दुख का कारण बन जाता है। हम दूसरो को नीचा दिखाने का अवसर खोजते है जबकि अवसर का उपयोग आत्म-विकास में करना चाहिए।