पवित्र रक्षाबंधन त्योहार को हमने अपने आडंबर, दिखावे से विकृत कर दिया है-विशुद्ध सागर जी म.सा.
परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने अपने आज के प्रवचन में फरमाया कि अपने मन को समझाना चाहिए की भले ही मेरा तन अर्थात शरीर कहीं भी रहे किंतु मेरा मन सदा ही परमात्मा का स्मरण करते रहे। अगर इस मन को संसार के बंधन से मुक्त कराना है तो मन को संसारिक कार्यों से अलग करके परमात्मा की ओर ले जाना होगा। जब तक हमारा मन बंधन में रहेगा तब तक 84 लाख योनियों के चक्कर में हम पड़े रहेंगे। हमारा सांसारिक बंधन ही पाप के बंध का कारण है। आज एक ऐसा पर्व है रक्षाबंधन का जो अपने साथ एक संकल्प भी लेकर आता है बंधन का। यह पर्व सावन माह के पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। किंतु हम इसे अपनी व्यवस्था के अनुसार सावन माह में कभी भी मनाने लग गए है। वास्तव में यह रक्षाबंधन खून के संबंध अर्थात सगे भाई बहनों के लिए नही था। बल्कि यह पर्व ऐसे भाई बहन के लिए था जिनमे खून का रिश्ता नही है। और ऐसे में एक भाई अपनी बहन को रक्षा का वचन देता है। जिस प्रकार एक सिपाही देश की रक्षा करता है , एक किसान खेत में अनाज का उत्पादन और उसकी रक्षा करता है। ये भी रक्षक अर्थात हमारे भाई के समान है। उसी प्रकार जो व्यक्ति जिसे रक्षा का वचन देता है ऐसे सभी के लिए यह रक्षा बंधन का त्योहार है। रक्षाबंधन वास्तव में मैत्रीभाव का त्योहार है। जिस प्रकार एक सच्चा मित्र अपने दूसरे मित्र का अभी अहित नहीं चाहता उसी प्रकार एक भाई अपनी बहन के हित-अहित की हमेशा चिंता करता है। रक्षाबंधन आत्मरक्षा के वचन का त्योहार है। जब भगवान श्री कृष्ण के एक उंगली से खून बहने लगा तब द्रोपति जी ने अपने साड़ी का एक टुकड़ा फाड़कर भगवान कृष्ण के हाथ में बांधती है। तब श्री कृष्ण द्रोपती को आजीवन रक्षा का वचन देते है। वास्तव में यही रक्षाबंधन है। इस पावन और पवित्र त्योहार को हमने आज अपने आडंबर अर्थात दिखावे से विकृत कर दिया है। आज हम खून का रिश्ता ठीक से नही निभा पा रहे है लेकिन संसार में नए नए रिश्ते बनाते जा रहे है। तो ऐसा रिश्ता कभी भी उचित नहीं हो सकता। एक झाड़ू का प्रत्येक भाग जब तक एक समूह में बंधन के रूप में रहता है तब तक वह कचरा निकालने के काम आता है और अलग अलग होते ही वह झाड़ू स्वयं कचरा बन जाता है । बंधन जब निस्वार्थ होता है तो वह मुक्ति का साधन बन जाता है और जब बंधन स्वार्थ के लिए होता है तो वह संसार के बंध का कारण बन जाता है। रक्षा का बंधन केवल एक भाई बहन के बीच नही होना चाहिए। वास्तव में उन सभी संबंधों के बीच होना चाहिए जिनका हम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग कर सकते हों। अगर हम भी आज तक अपने संबंधों के साथ स्वार्थ का व्यवहार अर्थात बंधन करते रहे है तो आज उसका पश्चाताप करना है। और अपने संबंधों को निःस्वार्थ बंधन में बांधने का प्रयास करना है। जिस दिन हमारा बंधन निःस्वार्थ हो जायेगा उस दिन हम रक्षाबंधन के वास्तविक अर्थ को समझ पाएंगे। आज रक्षाबंधन के पर्व पर उपहार स्वरूप एक बहन को अपने भाई से उनके गलत आचरण और बुरी आदतों को मांग लेना चाहिए। अर्थात ऐसे आदतों को छोड़ने का वचन लेना चाहिए। साथ ही भाइयों को ऐसा वचन देकर इस रक्षाबंधन के पर्व को अंतःहृदय से स्वीकार करना चाहिए। ज्ञानी भगवंत कहते है हमे सदा ही आत्मा की रक्षा के लिए बंधन करना चाहिए । आत्मा के विकास के लिए किया गया बंधन ही रक्षा है और आत्मा की रक्षा के लिए किया गया बंधन ही वास्तविक रक्षाबंधन है।