हम अपने दोषों को दूर कर ले तो शाश्वत सुख को प्राप्त कर सकते है – विशुद्ध सागर जी म.सा.
धमतरी। परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने अपने आज के प्रवचन में फरमाया कि परमात्मा के शांत प्रशांत स्वरूप का ध्यान करने से, उस ओर दृष्टि करने से जीवन के सब संकट हल हो सकते है। हम कर्मो को अपना मानते है जबकि परमात्मा हमे कर्म रहित मानते है। गुरु ने फरमाया की हमारे दोषों के कारण ही हम संसार में भटक रहे है। अगर हम अपने दोषों को दूर कर ले तो शाश्वत सुख को प्राप्त कर सकते है। हम वस्तु के वास्तविक स्वरूप को भूलकर उसे अपना मान लेते है। यही हमारे क्रोध का कारण है। अब अपने चेतना को जगाकर वस्तु के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना है। यही ज्ञान हमे आत्मा तक पहुंचा सकती है। यदि कर्म हमसे कोई विकार कराता है और हम कर्माधीन हो जाए तो कभी भी शाश्वत सुख नहीं मिल सकता। भगवान आत्मा आनंद के भंडार है। इसलिए हमे भी अपनी आत्मा को भगवान आत्मा मानकर कर्म करना चाहिए। हम कुछ कदम आगे तो बढ़ाते है। पर विचार करना है क्या हम अपना कदम आगे बढऩे के लिए ही बढाते है या फिर पीछे चले जाते है। शरीर की हर जरूरत को हम पूरा करने का भरपूर प्रयास करते है। जबकि आत्मा की जरूरत को पूरा करने के लिए कभी कोई प्रयास नहीं करते। अक्षयनिधि तप के माध्यम से हमे आत्मा को अक्षय निधि देने का प्रयास करना है। परमात्मा के बताए सभी अनुष्ठान के माध्यम से हम आत्मा का विकास कर सकते है। सभी तप, अनुष्ठान आदि के माध्यम से हमे आत्मा के निकट आना है।
गुणानुरागी वही होता है जिसे दूसरो के अच्छे गुण दिखाई दे,साथ ही उसे जीवन में लाने का प्रयास भी करे। अज्ञानी व्यक्ति व्रतों को बंधन मानता है और ज्ञानी पुरुष व्रतों को आत्मा के विकास का साधन मानते है। हम दुख में परमात्मा को याद करते है लेकिन सुख के समय में परमात्मा को भूल जाते है। अगर हम परमात्मा को सुख के समय में भी याद करते रहे तो जीवन में कभी दुख आयेगा ही नही। संसारिक कार्यों को भावना तो हमेशा करते है अब आत्मा के विकास की भावना करना है। इसीलिए परमात्मा से निवेदन करना है की अगला जन्म महाविदेह क्षेत्र में परमात्मा के कुल में हो । जब तक ऐसी भावना नही होगी तब तक ऐसा परिणाम भी नही मिल सकता। परमात्मा के प्रति प्रमोद भाव ही हमे परमात्मा बना सकता है। हम अपने आप को हमेशा श्रेष्ठ मानते ही यही मान कषाय है। जो हमारे मन में प्रमोद भाव को आने से रोक लेता है। कल्पना अर्थात कल अपना अर्थात हमे ऐसा पुरुषार्थ करना है की कल अपना हो अर्थात आने वाला समय मेरी आत्मा के विकास के लिए हो। हमे दूसरो का मान कषाय तो दिखता है लेकिन अपना मान कषाय नही दिखता।