जीवन में प्रीति परमात्मा नेमीनाथ के जैसे होनी चाहिए – विशुद्ध सागर जी म.सा.
धमतरी। परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने कहा कि आज के प्रवचन में कल्पसूत्र के माध्यम से भगवान नेमीनाथ का जीवन चरित्र का वाचन हुआ। नेमीनाथ भगवान आबाल ब्रम्हचारी कहे जाते है। जैन जगत के 22वे तीर्थंकर परमात्मा नेमीनाथ का जन्म सौरीपुर नगर के राजा समुद्रगुप्त की भार्या शिवादेवी की रत्नकुक्षी से हुआ था। जो राग की राख करता है वही भविष्य में वीतराग बन सकता है। राग एक मीठा जहर है। और जहर का एक ही काम है मारना। हम मोह में फंसकर आत्मा के विकास को रोक रहे है। अगर राग करना ही है तो वीतराग से राग करना चाहिए , तो संसार भ्रमण कम हो जाएगा। वैराग्य को खत्म करना तथा राग को बढाना तो सबको आता है। ज्ञानी भगवंत कहते है हमे अपने वैराग्य को बढ़ाना है ताकि आत्मा का विकास हो सके। हमे हमारे जीवन में प्रीति की जरूरत है लेकिन प्रीति परमात्मा नेमीनाथ के जैसे होंनी चाहिए। नेमीनाथ भगवान का राजुल के साथ पूर्व के आठ जन्मों का संबंध था। नौवें भव में नेमीनाथ परमात्मा और राजुल बने। परमात्मा परिवारजनों के बार बार कहने पर भी विवाह के लिए मना कर देते थे। लेकिन एक बार विवाह के बारे में जब परिवार जनों ने पूछा तो भगवान ने कुछ नही कहा। परिवारजनों ने इसे मौन स्वीकृति मान लिया। और उनका विवाह उग्रसेन राजा की पुत्री राजुल के साथ तय कर दिया। श्रवण सुदी छठ के दिन विवाह तय हुआ। मन न होते हुए भी भगवान सेहरा बांधकर बारात के साथ चले। रास्ते में उन्हें पशुओं की करुण कुंदन सुनाई दी। जिसे सुनकर परमात्मा वही रूक गए। और सारथी से कहकर अपना रथ उस ओर ले जाने कहा जिस ओर से पशुओं की आवाज आ रही थी। उस स्थान पर पहुंचकर पूछा तो जानकारी मिली की इन पशुओं को विवाह में भोजन हेतु रखा गया है।
इतना सुनते से करुणा सागर परमात्मा की आंखों में आंसू आ गए और तत्काल उन पशुओं को बंधन मुक्त कराया। और कहा मेरे विवाह के निमित्त इन पशुओं का वध। इससे तो अच्छा है मैं विवाह ही न करू। ऐसा विचार करते ही सारथी को अपना रथ गिरनार पर्वत को ओर ले जाने का आदेश दिया। उन्हें रोकते हुए सभी परिवारजन, सगे संबंधी उन्हें समझाने लगे की एक बार विवाह करके तुम वधु का दर्शन करा दो। उसके बाद भले ही दीक्षा ग्रहण कर लेना। या फिर क्या तुम कोई नवीन तीर्थंकर हो, जो विवाह किए बिना ही मोक्ष में जाना चाहते हो। इतना सुनकर भगवान नेमीनाथ ने सबको समझाकर गिरनार को ओर बढऩे लगे। इस बात की जानकारी नव-वधु राजुल को जैसे ही मिली। उन्होंने विचार किया भले ही इस जीवन में मेरा विवाह नेमीनाथ से न हो सके। किंतु संयम जीवन में तो सहभागी बन ही सकती हू। ऐसा विचार करते करते वो भी गिरनार पर्वत की ओर चले गए। वहा पहुंचकर दोनो ने चारित्रधर्म अंगीकार कर लिया। और दीक्षा के 54 दिन के बाद 55वे दिन परमात्मा को केवलज्ञमान हो गया। नेमीनाथ भगवान से पहले ही राजुल का निर्वाण हो गया। उसके बाद नेमीनाथ भगवान का निर्वाण कल्याणक हुआ।