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हम संसार में सुख खोजने का प्रयास करते है इसीलिए हमेशा दुखी रहते है – विशुद्ध सागर जी म.सा.

धमतरी। परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने अपने आज के प्रवचन में फरमाया कि अगर अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करना है तो पहले अपने शुद्ध स्वरूप को जानना होगा। हमारा शुद्ध स्वरूप अजर, अमर और अविनाशी है। हम संसार में सुख खोजने का प्रयास करते है इसीलिए हमेशा दुखी रहते है। अब शाश्वत सुख को पाने का प्रयास करना है तो संसार को छोड़कर अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जानने का प्रयास करना होगा। ये संसार जो मेरे बारे में कभी नही सोचता मेरी कभी चिंता नही करता और मैं अज्ञानी हमेशा उस संसार की चिंता करता हू। जबकि मेरी आत्मा जो हमेशा मेरे विकास की चिंता करती है मैं उसे ही भूल गया हू। अब अपने आत्मा के वास्तविक स्वभाव को जानना है। मेरी आत्मा सहजानंदी है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जानने के लिए मोह को छोडऩा पड़ेगा। क्योंकि हमारा मोह ही हमे सांसारिक कार्यों में खींच कर ले जाता है। हमारा मोह ही हमे संसार छोडऩे नही देता। इस मोह को छोड़कर हम शुद्ध, बुद्ध और मुक्त हो सकते है। इस मोह को छोड़कर हम पुरुषोत्तम बन सकते है संसार में पूज्यनीय बन सकते है। हमे सत्य को जानकर और उसे जीवन में उतारकर आत्मा का विकास करना है। कई बार हमारी द्रव्य क्रिया के भाव में अभाव हो जाता है तो हम अपने वास्तविक स्वभाव से दूर हो जाते है।
चार प्रकार के धर्म दान, शील, तप और भाव होते है
परमात्मा ने चार प्रकार के धर्म बताए है। दान, शील, तप और भाव। दान करते संसार के सभी जीवों पर अपनी दया बढ़ाना। शीलधर्म का पालन करते करते संसार में जो अभी तक न आ पाए है ऐसे जीवों पर दया करना। तप दो प्रकार के होते है। बाह्य तप और अंतरण तप। इरादे पूर्वक वस्तुओ का त्याग करना बाह्य तप कहलाता है। अंतरण तप क्रोध, मायाचारी, मान, लोभ आदि का त्याग करना है। भावों से दूसरो को सुखी करने का प्रयास करना। क्योंकि मेरा भाव ही मेरे सुख दुख का प्रमुख कारण होता है। दान, शील और तप धर्म के साथ यदि शुद्ध भाव न हो तो तीनों धर्म व्यर्थ है। इसीलिए भावों में हमेशा शुद्धता होनी चाहिए। हमारे कार्यों के साथ भावों की शुद्धता हमे वांछित परिणाम प्राप्त करा सकता है। द्रव्य से धर्म करते समय भावो का अभाव कभी नही होना चाहिए।
आत्मा को छोड़कर संसार के जड़ या रूपी पदार्थों को हम नित्य मान लेते है
बारह प्रकार की भावना होती है। पहला अनित्य भावना अनित्य अर्थात क्षणिक। अर्थात जो कम समय के लिए है, क्षणभंगुर है असत्य है, झूठा है, अस्थाई है, नाशवान है। जो संसार में कुछ समय के लिए हमे मिला है उसे हम हमेशा के लिए अपना मान लेते है। यही अनित्य भावना है। जबकि संसार में कुछ भी स्थाई रूप से अपना नही है। ज्ञानी भगवंत कहते है संसार में जो हमे दिखाई दे रहा है जो रूपी पदार्थ है वो सब अनित्य पदार्थ है। दूसरा नित्य भावना नित्य अर्थात स्थाई, निरंतर, सत्य, शाश्वत । जो हमेशा रहने वाला है वो नित्य है। जो नित्य रहने वाला है वो है हमारी आत्मा। और हम आत्मा को छोड़कर संसार के जड़ या रूपी पदार्थों को नित्य मान लेते है। यही हमारी अज्ञानता है। जैसी सूर्य की किरणों के साथ हमारी परछाई छोटी-बड़ी होते रहती है उसी प्रकार हमारी आत्मा में जब तक पुण्य की परछाई है वो संसार में हमे अनित्य पदार्थो को प्राप्त कराता है। और पुण्य के समाप्त होते ही प्राप्त पदार्थ भी चले जाते है। अपने अनित्य कार्यों के लिए किया गया श्रम हमारे नित्य आत्मा को भगवान बनने से रोक देता है। मेरी आत्मा नित्य है ,शाश्वत है, अजर और अमर है ये कभी नही भूलना चाहिए। हमेशा अपनी नित्य है आत्मा का हमे ध्यान रखना चाहिए। यही हमारी वास्तविक पूंजी है।

Ashish Kumar Jain

Editor In Chief Sankalp Bharat News

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