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हमे आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जानने और समझने की जरूरत है – श्री विशुद्ध सागर जी म. सा.

धमतरी। उपाध्याय प्रवर अध्यात्म योगी परम पूज्य महेंद्र सागर जी म. सा. युवा मनीषी परम पूज्य मनीष सागर जी म. सा. के शिष्य रत्न युवा संत परम पूज्य श्री विशुद्ध सागर जी म. सा. ने आज के प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि हे आत्मा तू ध्यान कर मैं शुद्ध स्वरूप हूं। मैं सहजानंदी हूं। मैं अर्थात आत्मा और जड़ अर्थात शरीर तत्व, ये दोनों अलग अलग हैं। मैं चेतन चिदानंद हूं। मैं चिन्मय सुधाकर हूं। मैं शक्ति संपन्न हूं। मैं सिद्धों का सहोदर हूं। मैं ज्ञान दिवाकर हूं। खाता तो ये जड़ तन अर्थात शरीर है। मैं अर्थात आत्मा को किसी खाने की जरूरत ही नही है। संसार में जो भी सुख दुख का अनुभव होता है वह शरीर को होता हैं। मुझे आत्मा के परिणाम को समझना है। संसार के प्रीत में फंसकर हम संसार में भव भ्रमण कर रहे हैं। संसार विष की धारा के समान हैं। जबकि आत्मा अमृत की धारा है। किंतु हमे विष की धारा में सुख का अनुभव हो रहा हैं। ज्ञानी कहते हैं मेरी आत्मा ही साधक है, साधन है और साध्य भी है। बस जरूरत है आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जानने और समझने की। परमात्मा और गुरु की कृपा से अपनी आत्मा के इस वास्तविक स्वरूप को जानना और समझना है। निज अर्थात स्वयं के अंदर जाकर स्वयं को जानना है। शरीर और आत्मा के भेद को समझना है। इसके लिए अपने अंतर्मन में विवेक दृष्टि के जगाना होगा। कोई व्यक्ति बैल के सामने बाल्टी लेकर दूध प्राप्ति की अपेक्षा से खड़ा हो तो भी उसे दूध की प्राप्ति नही हो सकती, सिर के ऊपर सूरज तप रहा हों और हम शीतलता की अपेक्षा करें तो ये असंभव है। इसी प्रकार हम संसार के नाशवान वस्तुओ में जो सुख खोजने का प्रयास करते है ये असंभव है। ये शरीर जो मल की खान है इसे हम चाहे जितना भी पवित्र करने का प्रयास कर ले किंतु यह अशुचि अर्थात अपवित्र ही रहेगा।

हमे संसार की वस्तुओ से कुछ समय के लिए तो अनुकूलता अर्थात सुख तो मिल सकता है लेकिन शाश्वत सुख नही मिल सकता। अशुची अर्थात अपवित्र, अशुद्ध, गंदा , मैला या अपवित्र होता है। शुचि अर्थात पवित्र, शुद्ध, साफ या सच्चा होता है। हमने इस संसार में आकर अपने शरीर को शुचि अर्थात पवित्र करने का प्रयास जिंदगी भर हरपल हरक्षण किया। किंतु ज्ञानी कहते हैं क्या कभी अपनी आत्मा को शुचि अर्थात पवित्र करने का प्रयास किया? अगर हमने आत्मा को शुचि करने का प्रयास नही किया, तो निश्चित ही हमारा भवभ्रमण बढऩे वाला है। हमारे शरीर की शुद्धता कभी भी हमारी आत्मा का कल्याण नहीं कर सकती। ज्ञानी कहते हैं आकर्षण का केंद्र हमारा शरीर है। अपने शरीर में गोरी चमड़ी और बाल काले अच्छे लगते हैं। किंतु अगर बाल सफेद और चमड़ी काले हो जाए तो यह स्थिति हमे अच्छा नही लगता। अर्थात शरीर का स्वरूप निरंतर बदलते रहता है । महापुरुष इस शरीर को किराए के मकान के जैसा मानते है जिसे एक दिन छोड़कर हमे जाना ही पड़ेगा। ज्ञानी कहते हैं हम इस संसार में शरीर को बनाने के लिए आत्मा की स्थिति को बिगाड़ते रहते है। आत्मा की स्थिति बिगडऩे के कारण आने वाला भव भी बिगड़ जाता है। आज हमे चिंतन करना है मैं इस शरीर के लिए जितना समय देता हूं उस समय में मै शरीर को बिगाडऩे का ही काम कर रहा हूं। अब मुझे आत्मा के विकास के लिए समय देना है ताकि आने वाला भव सुधर सके।

Ashish Kumar Jain

Editor In Chief Sankalp Bharat News

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