शरीर के प्रति मोह कम करना, गुणों का विकास करना दूसरे के प्रति दया, करुणा, क्षमा और सहनशीलता का भाव बढ़ाना यही आंतरिक विकास है – परम पूज्य मनीष सागर जी महाराज साहेब

धमतरी। अध्यात्म योगी उपाध्याय प्रवर परम पूज्य महेंद्र सागर जी महाराज साहेब उपाध्याय प्रवर युवा मनीषी परम पूज्य मनीष सागर जी महाराज साहेब आदि ठाना परम पूज्य निपूर्णा श्री जी महाराज साहेब की शिष्या परम पूज्य हंसकीर्ति श्री जी महाराज साहेब आदि ठाना श्री पाश्र्वनाथ जिनालय में विराजमान है। युवा मनीषी उपाध्याय प्रवर परम पूज्य मनीष सागर जी महाराज साहेब ने आज के प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि आज हम सभी को फिर एक दूसरे से जुडऩे का अवसर मिला है। वास्तव में यह अवसर स्वयं के विकास का है। जिस समय प्रकृति में बदलाव आता है। ठंड के बाद उष्णता बढ़ती है। दिन का समय बढऩे लगता है। चैत्र सुदी एकम के साथ आने वाला चंद्रमा भी प्रतिदिन बढऩे लगेगा। ये सब हमे आत्म विकास के लिए प्रकृति के माध्यम से स्वयं में परिवर्तन लाने के लिए प्रेरित कर रहा है। संसार में वस्तु मूल्यवान हो सकता है। लेकिन समय अमूल्य है। नए वर्ष के साथ अपने जीवन में भी कुछ परिवर्तन करना है। एक बाह्य परिवर्तन होता है और एक आंतरिक। बाह्य परिवर्तन का काम सदा करते रहते है। लेकिन अब आत्मविकास के लिए आंतरिक परिवर्तन करना है। जीवन में आंतरिक परिवर्तन लाए बिना सिद्ध बुद्ध और मुक्त नहीं हो सकते। बाह्य परिवर्तन संसार को बढ़ाने वाला होता है जबकि आंतरिक परिवर्तन संसार घटाने वाला अर्थात हमें मोक्ष तक पहुंचाने वाला होता है। पुण्योदय से हमे मानव जीवन मिल है। इस मानव जीवन के लिए देवता भी तरसते है। इस नववर्ष में हमें अपने अंदर के उत्साह को आत्मविकास में लगाना है। एक बबूल का पेड़ होता है जो जल्दी विकास कर लेता है जबकि चंदन के पेड़ का विकास धीरे धीरे होता है। इसलिए चंदन का पेड़ कीमती हो जाता है। अर्थात जो स्वयं का विकास अंदर से करता है वह बहुमूल्य बन जाता है और जो अपना विकास केवल बाहर से करता है वह कभी मूल्यवान नहीं बन पाता। बाह्य विकास में सांसारिक सम्पन्नता बढ़ती है जबकि आंतरिक विकास से संतोष बढ़ता है। आंतरिक विकास में हम सभी परिस्थितियों में अपने भावों को मजबूत करते है। शरीर के प्रति मोह कम करना, अपने गुणों का विकास करना दूसरे के प्रति दया करुणा, क्षमा और सहनशीलता का भाव बढ़ाना यही आंतरिक विकास है। परमात्मा अनाशक्ति की साक्षात् मूर्ति है। उन्हें देखकर हमे विचार करना चाहिए। की किस प्रकार परमात्मा ने अपनी आत्मा को तपाकर स्वयं का विकास किया है और पूज्यनीय बन गए।
परमात्मा के दर्शन हेतु जाते समय 5 अभिगम का करें पालन
महाराज साहेब ने कहा कि परमात्मा के दर्शन हेतु जाते समय 5 अभिगम का पालन करें। पहला सचित का त्याग – स्वयं के सम्मान की वस्तुओं का त्याग करना। दूसरा अचित का विवेक – अचित वस्तु अर्थात परमात्मा को अर्पण करने योग्य वस्तुओं का उपयोग करना चाहिए। तीसरा उत्तरासन धारण करना – बिना सिला हुआ वस्त्र कंधे पर धारण करना। चौथा अंजली बद्ध प्रणाम – दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करना। अर्थात विनय और विवेक पूर्वक प्रणाम करना चाहिए। प्राणिधान – मन ,वचन और काया की एकाग्रता के साथ परमात्मा का आलंबन।

