हमे संसार के सभी जीवों के प्रति मैत्री भाव रखना चाहिए – विशुद्ध सागर जी म.सा.
धमतरी। परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने अपने आज के प्रवचन में फरमाया कि सहज ही आनंद देने वाला ये सहजानंदी चातुर्मास चल रहा है। इस चातुर्मास में हमे शरीर के सुख को छोड़कर आत्मा के आनंद को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना है । परमात्मा महावीर के शासन में हम दिन प्रतिदिन कुछ नए अनुष्ठान कर रहे है। और इस अनुष्ठान के माध्यम से हमे स्वयं से जुडऩे का प्रयास करना है। दूसरो के लिए तो हमने अपना पूरा जीवन लगा दिया। अब कुछ स्वयं के लिए करना है । अपनी दृष्टि स्वयं पर रोकने का प्रयास करना है। जब तक हमारी दृष्टि स्वयं में नही रुकेगी तब तक आत्मा भी अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त नहीं कर पाएगा। तप, आराधना और साधना के माध्यम से स्व में आकर स्व में स्थिर होने का कार्य करना है। अपने गति को शरीर से आत्मा की ओर बढ़ाना है। गाय घास खाकर दूध देती है, दूध से दही बनता है। दही से मक्खन और मक्खन से घी बनता है । हम घास को घास के ही रूप में देखते है। जबकि ज्ञानी भगवंत घास में भी घी को देखते है। अर्थात ज्ञानी भगवंत की ये योग्यता होती है की वह वस्तु के वास्तविक स्वरूप को देख सकते है। अर्थात उन्हें वस्तुओ के भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों का ज्ञान होता है। हम केवल जानकारी प्राप्त करते है जबकि ज्ञानी भगवंत जानकर उसे समझने का फिर जीवन में उतारने का प्रयास करते है। आज हमे मैत्री भावना को जीवंत करने का प्रयास करना है। मैत्री भाव हमे संसार के सभी जीवों के प्रति रखना चाहिए। मैत्री भावना केवल दिखावटी नही होना चाहिए। मैत्री ऐसा होना चाहिए जिसके बाद और किसी के सहयोग की जरूरत न हो।
स्वयं के कार्यों से प्रसन्न होना आमोद कहलाता है। जबकि दूसरो के अच्छे गुणों और भावो को देखकर जब आंतरिक प्रसन्नता प्राप्त होती है उसे प्रमोद कहते है। हमे दूसरो के गुणों को देखकर गुणानूरागी बनने का प्रयास करना चाहिए। हम आमोद से प्रसन्न हो जाते है और प्रमोद हमे अच्छा नही लगता। अब हमे प्रमोद को प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करना है। दूसरो के अच्छे विचार को देखकर उससे प्रभावित होना उसे ग्रहण करने की इच्छा रखना ही प्रमोद भाव है। इस संसार में हमारे शरीर का हित चाहने वाले तो बहुत है लेकिन आत्मा का हित चाहने वाला ही सच्चा हितैषी होता है। हमारे भाव चार प्रकार के होते है। पहला भाव दूसरो को दुखी करके स्वयं को सुखी मानने वाले सबसे ज्यादा अधम अर्थात खराब होते है। दूसरा भाव दूसरो के दुख को देखकर स्वयं को सुखी मानने वाले अधम अर्थात खराब होते है। तीसरा भाव दूसरो को सुखी देखकर स्वयं को सुखी मानने वाला सामान्य अर्थात न अच्छा न खराब होता है। चौथा भाव दूसरो को सुखी करके स्वयं को सुखी मानने वाला सबसे अच्छा होता है। ज्ञानी भगवंत कहते है हमे अंतिम श्रेणी अर्थात अंतिम भाव में पहुंचना है। लेकिन इसके लिए दूसरो के गुणों के देखकर स्वयं में उसे लाने का प्रयास करना है। कम से कम हमे ऐसा प्रयास करना है की हमे सुखी करने के लिए जो स्वयं दुखी होते है उन्हे शब्दो के घाव नही देना है। क्योंकि इंसान तो चला जाता है उसके बाद भी उसके शब्द हमेशा याद रहता है।