सुखी होने के लिए आत्मा के अंदर शांति और संतोष का होना आवश्यक है – विशुद्ध सागर जी म.सा.
धमतरी। परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने अपने आज के प्रवचन में फरमाया कि अपनी आत्मा का आनंद लेने के लिए स्वयं को पहचानना आवश्यक है। स्वयं को जानकर स्वयं में ठहर जाना आत्मा के आनंद के लिए आवश्यक है। आराध्य की आराधना के योग्य बनाने वाला गुरु होता है। समझकर नासमझ बनने वाला वास्तव में नासमझ ही होता है जबकि समझकर समझदारी पूर्वक कार्य करने वाला समझदार होता है। किसी के विचारों को समझने के लिए हमें दिमाग का नहीं दिल का प्रयोग करना चाहिए। श्रावक के छह आवश्यक कर्तव्य है। पहला जिनेन्द्र पूजा परमात्मा के गुणों को देखकर उनके जैसे ही बनने का भाव होना चाहिए। दूसरा गुरु की उपासना परमात्मा बनने के लिए गुरु के निकट आना आवश्यक है। तीसरा स्वाध्याय प्रभु और गुरु को जब तक बराबर न कर ले तब तक स्वाध्याय नहीं हो सकता। चौथा संयम गुरु से प्राप्त स्वाध्याय के माध्यम से मर्यादा में रहना ही संयम है। पांचवा तप, तप के साथ क्रिया आवश्यक है। क्रिया के माध्यम से परमात्मा को याद किया जाता है। छठवां दान, दान देकर स्वयं का भला करना चाहिए। नहीं तो कर्मो का फल मिलकर ही रहता है। जैन दर्शन के अनुसार तीन प्रकार की तिथि होती है। पहला अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या ये तिथि चारित्र तिथि कहलाती है। दूसर पंचमी और एकादशी ये तिथि ज्ञान की तिथि कहलाती है। तीसरा शेष तिथि ये तिथियां दर्शन की तिथि कहलाती है। जिस स्थान पर परमात्मा का जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण कल्याणक हुआ हो उस तीर्थ का स्पर्श करने से समकित दृढ़ होता है।
श्रावक के 9 विशेष कर्तव्य होते है। पहला सामयिक, सामयिक अर्थ समता की आय कराने वाला। हमारा मन उस बंदर की तरह है जो एक डाल से दूसरे डाल पर उछल कूद करते रहता है, जबकि सामायिक में मन को शांत और एकांत में करने का प्रयास करते है। हमारी सामायिक पुनिया श्रावक जैसी होनी चाहिए। इतिहास में उन्हें ही याद किया जाता है जो अद्वितीय कार्य करते है । अपने किसी भी प्रश्न का उत्तर उनसे मांगना चाहिए जो उत्तर देने योग्य हो। हमारा जिनशासन बहुरत्न वसुंधरा है। हमारी एक सच्ची सामायिक हमे आत्म से परमात्मा बनने की क्षमता प्रदान करती है। लेकिन हमने इसे समय और क्रिया के बंधन में बांध दिया है। सामयिक 18 पाप स्थानकों से बचने का साधन है। सामयिक करते समय हमे वो दिखाई देते है जिनके कारण हम दुखी होते है और उन्हें हम सुख होने का कारण मानते है। जबकि सुखी होने के लिए आत्मा के अंदर शांति और संतोष का होना आवश्यक है। हमे प्रत्येक कार्य आत्मा को मुख्य मानकर करना चाहिए तभी आत्मा का विकास संभव है। आज हमे गुरु से ज्यादा गूगल पर भरोसा है। जबकि गुरु हमे आत्मविकास का जो ज्ञान देते है वो गूगल में भी नहीं मिल सकता।